चोटी की पकड़–17

गाड़ी-बरामदे की ऊपरवाली छत पर फलों के टब रखे हुए हैं। मेज पर दस्तरखान बिछा हुआ है। 


गुलाब की सजी फूलदानी रखी हुई है। 

गिलास में रोजेड बर्फ-मिला रखा है। अभी लाल फेन नहीं मिटा। 

सूरज डूब चुका है, फिर भी उजाला है।

 सड़क के आदमी देख पड़ते हैं। मंद-मंद दखिनाव चल रहा है। एक-एक झोंके से कविता आकर गले लगती है। 

एजाज बैठी हुई गिलास के फूटते हुए फेन के बुलबुले देख रही है।

 रसीली आँखों से, मालूम नहीं कौन-सा विचार लगा हुआ है। 

एक कनीज खड़ी हुई आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही है।

इसी समय यूसुफ फाटक पर देख पड़े। एजाज ने देखा, फिर आँखें फेर लीं। 

यूसुफ ने एजाज को नहीं देखा। संतरी के पास कुछ सिकंड के लिए खड़े हुए। मिलना चाहते हैं, कहा। 

संतरी ने सिर हिलाकर भीतर जाने का इशारा किया। यूसुफ निकल गए। पोटिकों से बरामदे पर गए। कुर्सियाँ रखी थीं। 

एक बेयरा खड़ा था। आदर से बैठने के लिए कहा। यूसफ बैठे। बेयरा ने कार्ड माँगा। 

कार्ड यूसुफ के पास नहीं था। उन्होंने कहा, सरकारी काम है।

रंडी सरकारी काम में आ सकती है, कोई बड़ा काम होगा, जो मर्दों का किया हुआ नहीं पूरा हुआ, सोचता हुआ वह सिकत्तर के कमरे में गया।

 "खबर दी, एक साहब तशरीफ़ ले आए हैं," कार्ड माँगने पर कहा, "सरकारी काम है।"

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